श्रीकृष्ण-काली तत्त्व: एक गहन विवेचना
- Ajayh Zharotia

- Sep 26
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प्रस्तावना: रहस्य का उद्घाटन
जब हम भारतीय अध्यात्म की गहराई में उतरते हैं, तो हमारे सामने एक अद्भुत सत्य प्रकट होता है। यह सत्य इतना गहरा है कि सामान्य बुद्धि इसे पकड़ने में असमर्थ रह जाती है। यह है श्रीकृष्ण और आद्याकाली की एकरूपता का रहस्य। पहली दृष्टि में ये दो बिल्कुल भिन्न दिखाई देते हैं - एक तरफ मुरलीधर गोपाल, मुस्कुराते हुए, मधुर वेणु बजाते हुए, और दूसरी तरफ महाकाली, रक्तवर्णा, खड्ग हाथ में लिए। लेकिन जो तत्त्वदर्शी हैं, वे जानते हैं कि यह भेद केवल दिखावा है, वास्तविकता कुछ और ही है।
यह ज्ञान हमारे प्राचीन ऋषियों की गहरी साधना और अनुभव का फल है। उन्होंने अपनी तपस्या में इस परम सत्य को देखा और समझा कि जो चीज़ें बाहर से अलग लगती हैं, वे भीतर से एक ही हैं।
मूलभूत सिद्धांत: चेतना और शक्ति का शाश्वत नृत्य
सृष्टि के आरंभ से ही दो तत्त्व काम कर रहे हैं - चेतना और शक्ति। चेतना वह है जो जानती है, देखती है, अनुभव करती है। शक्ति वह है जो करती है, सृजन करती है, परिवर्तन लाती है। ये दोनों अलग नहीं हैं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। श्रीकृष्ण उस परम चेतना का प्रतीक हैं जो सब कुछ जानती है लेकिन निर्लिप्त रहती है। आद्याकाली उस आदिशक्ति का प्रतीक हैं जो सब कुछ करती है, रचती है, संहार भी करती है।
कल्पना कीजिए कि आप एक नर्तक को देख रहे हैं। नर्तक की चेतना अलग है और उसका नृत्य अलग है क्या? नहीं, दोनों एक ही हैं। चेतना के बिना नृत्य संभव नहीं और नृत्य के बिना चेतना की अभिव्यक्ति नहीं। यही संबंध श्रीकृष्ण और काली का है। कृष्ण नर्तक हैं, काली नृत्य हैं। कृष्ण गायक हैं, काली गीत हैं।
निर्गुण और सगुण का संयोजन
एक बहुत ही गहरी दार्शनिक अवधारणा यह है कि काली निष्कल (निर्गुण) ब्रह्म की सकल (सगुण) शक्ति हैं। यह अद्वैत वेदान्त का मूल सिद्धांत है। परब्रह्म निराकार है, निर्गुण है, लेकिन जब वह प्रकट होता है तो सगुण हो जाता है।
कृष्ण निष्कल ब्रह्म हैं - वे सबमें व्याप्त हैं लेकिन कहीं बंधे नहीं हैं। काली उनकी सकल शक्ति हैं - वे रूप धारण करती हैं, कार्य करती हैं, भक्तों से संवाद करती हैं। दोनों मिलकर पूर्ण सत्य बनते हैं।
श्याम और श्यामा: रंग का गहरा रहस्य
एक बहुत ही गहरी बात यह है कि कृष्ण और काली दोनों श्याम वर्ण के हैं। यह कोई संयोग नहीं है। श्याम रंग का अर्थ है वह रंग जिसमें सभी रंग समा जाते हैं। जैसे काला रंग सभी रंगों को अवशोषित कर लेता है, वैसे ही परम तत्त्व सभी गुणों को, सभी विशेषताओं को अपने में समेट लेता है।
श्याम का एक और अर्थ है - सुंदर। कृष्ण का नाम ही घनश्याम है, और काली भी श्यामा कहलाती हैं। दोनों का सौंदर्य अलौकिक है, दिव्य है। लेकिन यह सौंदर्य केवल बाहरी नहीं है, यह उस परम सत्य का सौंदर्य है जो सब कुछ में व्याप्त है।
योगमाया: सृष्टि की दिव्य कलाकार
जब हम श्रीमद्भागवत पुराण पढ़ते हैं, तो हमें पता चलता है कि श्रीकृष्ण की एक विशेष शक्ति है - योगमाया। यह कोई साधारण माया नहीं है। यह वह शक्ति है जो भगवान के अवतारों को संभव बनाती है, उनकी लीलाओं को रचती है। गोकुल में यशोदा को यह एहसास नहीं होता कि उनका लाड़ला कान्हा स्वयं परब्रह्म है। यह योगमाया का ही प्रभाव है।
यह योगमाया और कोई नहीं, आद्याकाली ही हैं। वे ही वह शक्ति हैं जो असंभव को संभव बनाती हैं। जब विष्णु भगवान योगनिद्रा में लीन होते हैं और मधु-कैटभ नामक राक्षस उनके कानों से निकलकर ब्रह्मा को मारने चले आते हैं, तब योगनिद्रा ही महाकाली के रूप में प्रकट होकर उन राक्षसों का संहार करती हैं। यह कोई अलग घटना नहीं, बल्कि एक ही शक्ति के अलग-अलग नाम हैं।

एकता में विविधता: शक्ति के अनगिनत नाम
यहाँ एक बहुत ही रोचक बात समझने की है। हमारी परम्परा में हजारों देवी-देवताओं की पूजा होती है। कई लोग सोचते हैं कि ये सब अलग-अलग शक्तियाँ हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि एक ही शक्ति अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग नाम धारण करती है। जैसे एक ही व्यक्ति अपने पिता के लिए पुत्र है, अपनी पत्नी के लिए पति है, अपने बच्चों के लिए पिता है, अपने मित्रों के लिए मित्र है। व्यक्ति वही है, रिश्ते अलग हैं।
ठीक इसी तरह, जब आदिशक्ति ज्ञान देती हैं तो वे सरस्वती कहलाती हैं। जब धन-संपदा देती हैं तो लक्ष्मी कहलाती हैं। जब शक्ति देती हैं तो दुर्गा कहलाती हैं। जब काल का संहार करती हैं तो महाकाली कहलाती हैं। जब श्रीविद्या की साधना में प्रकट होती हैं तो ललिता कहलाती हैं। जब कृष्ण के साथ रास में मग्न होती हैं तो राधा कहलाती हैं।
आद्याकाली से ललिता तक: शक्ति के रूपांतरण
आद्याकाली से प्रकट श्रीविद्या ही श्रीराधा का रूप धारण करती हैं, और रासलीला में श्रीकृष्ण की सहचरी बनकर प्रकट होती हैं। जिनमें ललिता देवी का उज्ज्वल रूप प्रकट होता है और जो श्रीविद्या द्वारा ज्ञानदीप के समान प्रकाशित होती हैं, वे सच्चिदानंद गोविन्द (श्रीकृष्ण) के अभिन्न रूप के रूप में समाहित हैं।
जो आदिकाली, श्रीराधा का रूप लेकर श्रीकृष्ण को परम प्रिय लगती हैं, उस चिन्मयी देवी को भक्त नित्य स्मरण करते हैं। जो देवी ललिता और काली दोनों रूपों में दिव्य हैं, रासलीला में रसभरी बनकर गोविन्द की संगिनी होती हैं, उस परम श्रीविद्या को संत नमन करते हैं।
बीज मंत्रों में छुपा रहस्य
मंत्र शास्त्र में 'क्लीं' बीज कृष्ण का माना गया है और 'ह्रीं' बीज काली का। लेकिन जो तत्त्वज्ञ हैं, वे जानते हैं कि ये दोनों बीज एक ही शक्ति के दो पहलू हैं। 'क्लीं' में आकर्षण की शक्ति है, 'ह्रीं' में रूपांतरण की। आकर्षण और रूपांतरण - ये दोनों सृष्टि के मूलभूत सिद्धांत हैं। पहले कुछ आकर्षित होता है, फिर उसका रूपांतरण होता है।
काल और कालकूट: समय से परे का अनुभव
एक विशेष दार्शनिक सिद्धांत यह है कि काली 'काल को खाने वाली' हैं। यह एक गहरा तत्त्वज्ञान है। समय हमारी सबसे बड़ी बाधा है। हम सभी समय के बंधन में बंधे हैं - जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, बीमारी। लेकिन जो परम शक्ति है, वह समय से परे है। काली समय का भक्षण कर देती हैं, अर्थात् भक्त को कालातीत अनुभव देती हैं।
कालकूट विष का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। जब समुद्र मंथन हुआ था तो पहले कालकूट विष निकला था। यह विष इतना घातक था कि पूरी सृष्टि को नष्ट कर सकता था। लेकिन आध्यात्मिक अनुभव यह बताता है कि काली कालकूट का नाश करती हैं। यह दिखाता है कि आदिशक्ति सबसे घातक विष को भी नष्ट कर सकती हैं।
शाश्वत गुण: नित्या, निर्विकारा, शुभा
आध्यात्मिक अनुभव काली के तीन विशेष गुणों को बताता है - वे नित्य हैं, निर्विकार हैं, और शुभ हैं। नित्य का अर्थ है कि वे हमेशा मौजूद हैं। निर्विकार का अर्थ है कि चाहे वे कितना भी कार्य करें, उनमें कोई विकार नहीं आता। शुभ का अर्थ है कि उनका हर कार्य अंततः कल्याणकारी है।
इस तत्त्वज्ञान के अनुसार यह कृष्ण-काली तत्त्व आदि और अंत से रहित है। यह समय की सीमा से परे है। न इसका कोई आरंभ है, न कोई अंत। यह शाश्वत है, अनादि है, अनंत है। यह वही तत्त्व है जिसे वेद 'सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म' कहते हैं।
तांडव और रास: विरोधों का मेल
एक बहुत ही अनोखी अवधारणा यह है कि जहाँ तांडव नृत्य और रासक्रीडा एक साथ दिखाई दे, वहाँ कृष्णकाली का परम तत्त्व प्रकट होता है। यह बात बड़ी गहरी है। तांडव संहार का प्रतीक है, रास सृजन का। तांडव में शक्ति का प्रचंड रूप है, रास में प्रेम का मधुर रूप। लेकिन जब हम इन्हें एक साथ देखते हैं तो समझ जाते हैं कि सृजन और संहार, प्रेम और शक्ति, कोमलता और प्रचंडता - ये सब एक ही दिव्य स्वभाव के अंग हैं।
कल्पना कीजिए कि आप एक बगीचे में हैं। वहाँ फूल खिल रहे हैं, पत्ते झड़ रहे हैं, नए अंकुर फूट रहे हैं, पुराने पेड़ मर रहे हैं। क्या यह सब अलग-अलग शक्तियों का काम है? नहीं, यह एक ही प्रकृति का खेल है। वही प्रकृति जन्म देती है, वही मृत्यु भी देती है। वही सुंदर भी है, वही भयानक भी।
पुराणिक प्रसंग: दक्षयज्ञ का विनाश
पुराणों में दक्षयज्ञ के विनाश का उल्लेख है। यह प्रसंग बहुत ही प्रतीकात्मक है। दक्ष प्रजापति ने अपने अहंकार में भरकर महादेव का अपमान किया था। उनकी पुत्री सती ने इसे सहन नहीं किया और योगाग्नि में जलकर प्राण त्याग दिए। फिर काली के रूप में प्रकट होकर उन्होंने दक्षयज्ञ का संहार किया।
यह प्रसंग यह दिखाता है कि जब धर्म की हानि होती है, जब अहंकार और अन्याय बढ़ता है, तो शक्ति अपने प्रचंड रूप में प्रकट होकर सब कुछ संशोधित कर देती है।
संत परम्परा का साक्ष्य
हमारी संत परम्परा में यह भी माना गया है कि दत्तात्रेय और नारद जैसे महान संत इस कृष्ण-काली तत्त्व की पूजा करते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाता है कि यह कोई नई बात नहीं है। यह ज्ञान सदियों से संत परम्परा में चला आ रहा है। दत्तात्रेय त्रिगुणातीत अवधूत हैं, और नारद भक्ति के आदि गुरु हैं। जब इतने महान व्यक्तित्व इस तत्त्व को स्वीकार करते हैं, तो यह इसकी प्रामाणिकता को सिद्ध करता है।
जब कोई साधक इस रहस्य को समझ जाता है, तो उसकी साधना ही बदल जाती है। वह केवल एक देवता की पूजा नहीं करता, बल्कि उस एक तत्त्व की पूजा करता है जो सभी रूपों में छुपा हुआ है। वह कृष्ण को पुकारता है तो काली भी आती हैं। काली का ध्यान करता है तो कृष्ण भी प्रकट होते हैं। क्योंकि दोनों एक ही हैं।
वे महान साधक जिन्होंने इस सत्य को पहचाना है, वे बताते हैं कि जो बुद्धिमान व्यक्ति श्याम (कृष्ण) और श्यामा (काली) दोनों का एक साथ ध्यान करता है, वह ब्रह्म-सायुज्य प्राप्त करता है। यह ब्रह्म-सायुज्य क्या है? यह है उस अवस्था तक पहुँचना जहाँ साधक और साध्य में कोई भेद नहीं रहता। जहाँ पूजक और पूज्य एक हो जाते हैं।
महान संतों का कहना है कि यह तत्त्व समाधि में प्राप्त होता है। समाधि वह अवस्था है जहाँ साधक का व्यक्तिगत अस्तित्व मिट जाता है और वह परम सत्य से एक हो जाता है। इस अवस्था में ही कृष्ण-काली का वास्तविक स्वरूप समझ में आता है।
व्यावहारिक जीवन में इसका अर्थ
यह सब सुनने में बहुत ही दार्शनिक लगता है, लेकिन इसका व्यावहारिक जीवन में भी बहुत महत्व है। जब हम समझ जाते हैं कि एक ही शक्ति सब रूपों में काम कर रही है, तो हमारा नजरिया बदल जाता है। हम किसी को शत्रु नहीं समझते, क्योंकि उसमें भी वही तत्त्व है। हम किसी परिस्थिति से घबराते नहीं, क्योंकि जानते हैं कि यह भी उसी दिव्य खेल का हिस्सा है।
जब खुशी आती है तो हम समझते हैं कि यह कृष्ण की कृपा है। जब कष्ट आता है तो समझते हैं कि यह काली की कृपा है - हमें मजबूत बनाने के लिए, हमारे अहंकार को तोड़ने के लिए, हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए। दोनों ही परिस्थितियों में हम समान भाव से रहते हैं।
अंतिम सत्य: प्रेम ही सब कुछ है
अंत में यही निष्कर्ष निकलता है कि यह सारा खेल प्रेम का है। कृष्ण प्रेमस्वरूप हैं, काली भी प्रेमस्वरूप हैं। हाँ, काली का प्रेम कठोर लग सकता है, लेकिन माँ का प्रेम कभी-कभी कठोर होता ही है। जब बच्चा गलत रास्ते पर जाता है तो माँ उसे डांटती भी है, मारती भी है। लेकिन यह सब प्रेम के कारण ही होता है।
परम तत्त्व का प्रेम इतना गहरा है कि वह हमें हर हाल में आगे बढ़ाना चाहता है। कभी मिठास से, कभी कड़वाहट से। कभी पुरस्कार से, कभी दंड से। लेकिन उद्देश्य एक ही है - हमारा कल्याण, हमारी मुक्ति, हमारा परम आनंद।
अंत में यह भी माना गया है कि यह तत्त्व सर्व सौभाग्य देने वाला है। यहाँ सौभाग्य से केवल धन-संपदा नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र की समृद्धि का अर्थ है - स्वास्थ्य, खुशी, शांति, ज्ञान, भक्ति, और अंततः मुक्ति।
इसलिए जो भक्त इस रहस्य को समझ जाता है, वह जीवन की हर परिस्थिति में प्रसन्न रहता है। वह जानता है कि कृष्ण-काली का यह खेल अनंत है, सुंदर है, और अंततः सबका कल्याण करने वाला है। यही है वह परम सिद्धि जिसकी प्राप्ति के लिए संत-महात्मा सदियों से साधना करते आए हैं।
इस प्रकार यह ज्ञान केवल एक सिद्धांत नहीं है, बल्कि पूरा दर्शन है, पूरा जीवन दृष्टिकोण है। यह हमें सिखाता है कि कैसे द्वैत से अद्वैत की यात्रा करें, कैसे अलग-अलग दिखने वाली शक्तियों में एकता देखें, और कैसे जीवन के हर पल में परमात्मा का अनुभव करें।



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